कौन हु मै क्या मुझे पता है
तपते सूरज के टले सुनसान रहो मै
आपनी सोच लिए चुप चाप चलता हु
मनुष्य होने की क्या यहे सजा है !!
पुझा जब अपने मन से क्या सच है
तब ये आवाज़ आई
मनुष्य के जीवन का सच
कही गहरा है
गुमनाम अकेले जीने से भला है
की उस भीड़ मई कहे खो जाओ
सब के सपनो को देखू
उसी से अपना मन बहलाऊ
आजअगर है कुछ पाया कल खोना होगा
अपने दिल के हर गम को धोना होगा
रुकने का अब वक्त नही मेरे पास
इस भीड़ मै मुझे भी खोना होगा
ना मै सन्यासी हु ना ही कोई संत
कई अर्माओ लिए जीता हु
और अपने हे गम को खुशियों के टेल पीता हु
पर मै खूस हु क्युकी मै एक मनुष्य हु
मुझे खुश रहना होगा जीवन का सच इसी तरह जीना होगा
अब जान गया हु मै । ख़ुद को पहचान गया हु मै
की हु तो बस के मानुष
Monday, August 24, 2009
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